रांची: मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने हूल दिवस के अवसर पर संताल विद्रोह के नायकों के चित्र पर माल्यार्पण कर नमन किया। मुख्यमंत्री ने कहा सिदो, कान्हू, चांद, भैरव, फूलो, झानो व विद्रोह में शहादत देने वाले सभी वीरों की शहादत सदैव झारखण्डवासियों को प्रेरित करता रहेगा। उन्होंने कहा कि जबतक झारखंड रहेगा। शहीदों का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता रहेगा।
मुख्यमंत्री ने कहा विद्रोह का नेतृत्व करने वाले सिदो, कान्हू, चांद, भैरव, फूलों और झानों के साथ-साथ विद्रोह में शहादत देने वाले सभी वीरों का बलिदान सदैव झारखण्डवासियों को प्रेरित करेगा। यह महत्वपूर्ण दिवस है। कोरोना संक्रमण के इस दौर में कार्यक्रम करना संभव नहीं था। व्यक्तिगत रूप में लोग इस दिवस को मना रहें हैं। उम्मीद करता हूं, जबतक झारखण्ड रहेगा शहीदों का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता रहेगा।
मुख्यमंत्री ने कहा कि सभी झारखण्डवासी इस गौरवपूर्ण दिवस के अवसर पर वीर शहीदों को स्मरण करें, ताकि आने वाली पीढ़ी वीरों की वीर गाथा से अवगत हो गौरवान्वित हो सके। आइये मिलकर शहीदों के सपनों को साकार करें।
पहली बार सिदो-कान्हू के जन्मस्थल भोगनाडीह में हूल दिवस पर नहीं हुआ समारोह
अमर शहीद सिदो-कान्हू की जन्मस्थली बरहेट स्थित भोगनाडीह में जहां हर वर्ष 30 जून को परंपरागत रूप से मेला लगता था। इस बार शहीद के छठी पीढ़ी के वंशज रामेश्वर मुर्मू की कथित हत्या के विरोध में सन्नाटा पसरा रहा। झारखंड राज्य बनने के बाद से कोई ऐसा साल नहीं गुजरा जब हूल दिवस पर सत्तासीन मुख्यमंत्री अथवा मंत्री का आवागमन भोगनाडीह में नहीं हुआ हो। उपायुक्त वरुण रंजन के मुताबिक देर शाम तक 30 जून के लिए भोगनाडीह में किसी वीआईपी मूवमेंट की सूचना नहीं है।
बता दें कि हर साल 30 जून को हूल दिवस पर सरकारी समारोहों में सिदो-कान्हू के बलिदान को याद किया जाता है, मगर 1855 की इस जनक्रांति को पहले स्वतंत्रता संग्राम के तौर पर सही पहचान आज तक नहीं मिल पाई। देश तो दूर झारखंड के स्कूली पाठ्यक्रम में भी इसे सिर्फ आदिवासी विद्रोह ही पढ़ाया जाता है। मनमाना लगान न दे पाने वाले आदिवासियों की जमीन हड़पने वाले अंग्रेजों के स्थायी बंदोबस्त कानून के खिलाफ ये पहला संगठित जनविद्रोह था। इस गौरवशाली इतिहास को भुलाने का नतीजा है कि आज भी आदिवासी भूमि से वंचित हैं।