रांची। डोकरा कला दुनिया की सबसे प्राचीनतम है और झारखंड में भी डोकरा कलाकृतियां बनाने की परंपरा सदियों से रही है। डोकरा कला गैर लौह धातु की ढलाई है, जो खोई हुई मोम की ढलाई तकनीक का उपयोग करती है। इस प्रकार की धातु की ढ़ाई का उपयोग भारत में चार हजार से अधिक वर्षाें से किया जा रहा है और देश के विभिन्न हिस्सों के अलावा झारखंड में भी इसका उपयोग किया जाता है।सबसे पहले ज्ञात खोई मोम की कलाकृतियांें से एक मोहनजोदड़ों की नृत्यांगना है।
डोकरा आर्ट के उत्पादों की मांग आज पूरी दुनिया में बढ़ी है। झारखंड की इस हस्तशिल्प कला में रोजगार की काफी संभावनाएं है। हजारीबाग से आये एक डोकरा कलाकार का कहना है कि हस्तनिर्मित इन कलाकृतियों को बनाने के लिए कई प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। पीतल,कांसा, निकिल और जस्ता समेत अन्य धातु को पहले मिट्टी के सांचे में डाल आग पर तपाकर अद्वितीय आकृतियां तैयार की जाती है। इसे बनाने के लिए उस आकृति की सबसे पहले मिट्टी का ढांचा तैयार किया जाता है, उसके ऊपर बी वैक्स का डिजाइन बनाया जाता है, उसके ऊपर फिर से मिट्टी का परत चढ़ाया जाता है। इसके बाद इस आकृति को धूप में सूखा दिया जाता है। सूखने के बाद इसे आग में तपाया जाता है। आग में तपने से वी वैक्स पिघल जाता है तथा निश्चित आकृति प्राप्त हो जाती है।
जमशेदपुर के घाटशिला क्षेत्र से आयी एक महिला कलाकार बताती है कि डोकरा आर्ट बनाने में 6 से 8 महीने तक का समय लग जाता है। शिल्पकार बताती है कि सबसे पहले मिट्टी का एक ढांचा तैयार किया जाता है, फिर उसमें काली मिट्टी को भूसे के साथ मिलाकर उसका बेस तैयार किया जाता है। काली मिट्टी जब सूख जाती है, तो उसके बाद लाल मिट्टी से उस पर लेपाई की जाती है, जिससे वे फटे नहीं। लाल मिट्टी से लेपाई करने के बाद मोम का उस पर लेप लगाते हैं। ज बवह मोम सूख जाता है, तो अगले प्रोसेस में मोम के पतले धागे से उस पर बारीकी से डिजाइन बनाते हैं। जब ये सूख जाता है, तो अगले चरण में मूर्ति को मिट्टी से ढक देते हैं, इसके बाद इसे सुखाते हैं, सुखाने के लिए धूप का ही सहारा होता हैं। समय के साथ डोकरा कला लुप्त होती जा रही है, वहीं बाजार की कमी के कारण डोकरा कलाकार भी अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं।