Karma Puja: भारत की आदिवासी संस्कृतियां चूंकि प्रकृति के बीच पनपी हैं, इसलिए उनके सभी पर्व और उत्सव भी प्रकृति के ही इर्द-गिर्द घूमते हैं। आज झारखंड में प्रकृति का पर्व करमा मनाया जा रहा है। भाई-बहन के पवित्र रिश्ते के साथ इसका सीधा संबंध प्रकृति संरक्षण से जुड़ा है। इस पर्व में करम की डाल का विशेष महत्व है।
करमा झारखंड के आदिवासियों का एक प्रमुख त्योहार है। यह पर्व प्रतिवर्ष सितंबर महीने के आसपास भादो की एकादशी को पड़ता। भाई की सुख समृद्धि के लिए गांव भर की बहनें रखकर यह पर्व मनाती हैं। साथ ही बहनें अपने भाइयों की सलामती के लिए प्रार्थना करती हैं। करमा पर्व मनाने के पीछे एक भावना अच्छी फसलों की कामना भी है। करमा के अवसर पर झारखंड के आदिवासी ढोल-मांदर और नगाड़े के थाप पर झूमते है एवं सामूहिक नृत्य करते हैं। यह पर्व झारखंड के साथ-साथ छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश ओडिशा एवं बंगाल के आदिवासियों द्वारा भी धूमधाम से मनाया जाता है।
करमा पूजा में 9 दिन पहले से टोकरियों में नदी से बालू लाकर उसमें सात प्रकार के अन्न बोये जाते हैं जो पूजा दिन तक अंकुरित हो जाते हैं। जिसे ‘जावा’ फूल कहा जाता है। करमा के दिन पूजा स्थानों को फूल-पत्तियों से सजाया जाता है। करमा के दिन विधि-विधान के साथ पूजा की जाती है। शाम को ही करम डाल को काटकर युवा लाते हैं। दाल का स्वागत पुजारी उसे विधिपूर्वक पूजा स्थान में स्थापित करते हैं। करमा पूजा की कहानियां भी प्रचलित हैं। जिन्हें सुनाया और सुना जाता है। पूजा के साथ ही करमा-धरमा कथा सुनाई जाती है।
करमा पर्व मनाने के पीछे प्रकृति संरक्षण की भावना
करमा प्रकृति पर्व है। इसका तात्पर्य प्रकृति संरक्षण की भावना इसके साथ जुड़ी हुई है। प्रकृति की आराधना तभी सफल होगी जब उसके संरक्षण में हमारी सकारात्मक भागीदारी हो। यह आज के लिए भी जरूरी है, कल हमारी आने वाली संततियों के लिए भी जरूरी है। क्योंकि प्रकृति है, तभी हम हैं!
क्या हम नहीं जाते, जब हम एक पेड़ काटते हैं, अपने लिए सांसों की गिनती कम करते जाते हैं। अपने ही स्वार्थ में घिर कर हम जंगलों को अंधाधुंध काटते चले जा रहे हैं। शहरों का दायरा बढ़ता जा रहा और जंगल का दायरा सिमटता जा रहा है। सिर्फ झारखंड के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो यह राज्य ‘जल-जंगल-जमीन’ के सिद्धांत पर पर टिका हुआ है। लेकिन कितना, आज इसको बताने और छुपाने की जरूरत नहीं रह गयी है। जंगल घट गये हैं, जंगलों के घटने से जल का स्रोत रसातल में चला गया है, जमीन तो उतरनी ही है, लेकिन उसका स्वरूप बदल गया है। तो अब झारखंड के झंडा बरदार ही बतायें कि वह ‘जल-जंगल-जमीन’ की अर्थी लिये क्यों घूम रहे हैं।
चाहे सनातन धर्म हो या आदिवासी संस्कृति, इनके पर्वों ही नहीं, बल्कि इनकी दिनचर्या को अगर प्रकृति से जोड़ा गया है तो उसका तात्पर्य है। तात्पर्य यह कि जीव-जगत और प्रकृति में संतुलन स्थापित करना है। 83 करोड़ योनियों में मनुष्य को छोड़कर तमाम जीव प्रकृति द्वारा तय नियमों पर ही चलते हैं, सिर्फ एकलौता मनुष्य ही है, उसके लिए सारे नियम ताक पर हैं। उसने इन सारे संतुलनों को बिगाड़ कर रख दिया है। प्रकृति संरक्षण जरूरी है, उसे यह बात समझ में तो आती है, उस पर चर्चा भी करता है, लेकिन अपने स्वार्थ के कारण उसे प्रयोग में नहीं ला पाता। और चाहकर भी वह प्रकृति के साथ संतुलन नहीं बना पाता। हां, सिर्फ प्रकृति प्रेमी संस्कृतियों को मानने वालों को ही इसके लिए जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि प्रकृति संरक्षण की राह में एक परेशानी भी है और उसे नकारा भी नहीं जा सकता। यह निर्विवाद सत्य है कि प्रकृति संरक्षण की भावना भारत और भारतीय संस्कृतियों में ही मौजूद है। विश्व की तमाम संस्कृतियों में प्रकृति संरक्षण की भावना नदारद है। वैश्विक स्तर पर देखें तो यह एक बहुत बड़ा कारण है। अगर विश्व की तमाम संस्कृतियों मे प्रकृति संरक्षण की बातें मौजूद होतीं तो इसके प्रकृति संरक्षण के कुछ बेहतर परिणाम सामने होते।
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