Ranchi : इस दिवाली रांची के घर और आंगन गोबर से बने दीयों की रोशनी और खुशबू से महक उठेंगे। सुकुरहुटू गोशाला, चापूटोला अरसंडे और धुर्वा सीठियो में 90 महिलाएं मिलकर करीब 7 लाख दीये तैयार कर रही हैं। इन दीयों को शुद्धता और पारंपरिकता के साथ बनाया जा रहा है।
पांच साल पहले शुरू हुआ अभियान
पांच साल पहले रौशन सिंह और सोनाली मेहता ने गोबर से उत्पाद बनाने की शुरुआत की थी। उनका मकसद गो सेवा के साथ-साथ ग्रामीण महिलाओं को सशक्त करना और स्वरोजगार के अवसर देना था। उन्होंने महिलाओं को प्रशिक्षण दिया, जिससे अब वे घर बैठे रोजगार कमा रही हैं। इस साल रांची से 2 लाख गोबर के दीये बनारस भेजे जाएंगे। ये दीये ऑनलाइन और ऑफलाइन बिक रहे हैं, और कई लोग गोशाला से सीधे इन्हें खरीद रहे हैं। पिछले पांच साल में 500 से ज्यादा महिलाएं इस पहल से आत्मनिर्भर बनी हैं।
गोबर के दीयों के फायदे :
- पानी में तैरते हैं, दीपदान के लिए उपयुक्त।
- गोबर की गंध नहीं होती।
- हल्के और पर्यावरण के अनुकूल, जलने के बाद मछलियों का भोजन बन जाते हैं।
- पूजा के लिए सबसे शुद्ध माने जाते हैं।
लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां और डेकोरेटिव आइटम
धुर्वा सीठियो में 40 महिलाएं ऊं, जय हिंद, स्वास्तिक, शुभ-लाभ, जय श्रीराम और लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां बना रही हैं। पीपल के पत्तों पर गणेशजी, तोरण जैसे डेकोरेटिव आइटम भी तैयार हो रहे हैं। इनमें पेड़ के बीज डाले जा रहे हैं, जो पर्यावरण के लिए फायदेमंद हैं। इनके निर्माण के लिए सांचे और मशीनें दी गई हैं।
ऐसे बनते हैं गोबर के दीये
सुकुरहुटू गोशाला में 20 महिलाएं रोज 6-7 हजार दीये बना रही हैं। रांची गोशाला न्यास के मनीष लोधा ने बताया कि दिवाली के लिए 2.5 लाख दीयों का ऑर्डर है, और इससे ज्यादा बनने की संभावना है। सूखे गोबर को छोटे टुकड़ों में तोड़कर मशीन से पाउडर बनाया जाता है। कच्चे गोबर को इस पाउडर और प्री-मिक्स पाउडर के साथ मिलाकर मिश्रण तैयार किया जाता है। महिलाएं इस मिश्रण से गोल आकार बनाकर सांचे में डालती हैं, जिसमें कई डिजाइन होते हैं। दीयों को सूखने में 3 दिन लगते हैं, फिर उन्हें पेंट किया जाता है।
दीयों की कीमत :
- छोटे दीये : 2-3 रुपये
- मध्यम दीये : 5 रुपये
- बड़े दीये : 7-10 रुपये
कहां-कहां बन रहे दीये
चापूटोला अरसंडे में 30 घरों की महिलाएं और सुकुरहुटू गोशाला में 20 महिलाएं दीये बना रही हैं। रांची गोशाला न्यास सभी सामग्री उपलब्ध करा रहा है। यह पहल न केवल पर्यावरण के लिए फायदेमंद है, बल्कि महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने में भी बड़ी भूमिका निभा रही है।